अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसाइटी में दंगों के दौरान 69 लोगों की हत्या के मामले में विशेष अदालत का फ़ैसला पूरे 14 साल बाद आया है.
इस मामले में अब 24 लोगों को दोषी क़रार दिया गया है, लेकिन इस मुक़दमे का फ़ैसला आने में बहुत देर हो गई है.
इन 14 सालों में काफ़ी कुछ बदल गया है. कहिए एक पूरी पीढ़ी बदल गई है. इस दौरान गुजरात में भी साबरमती में बहुत पानी बह चुका है.
दूसरा, गुलबर्ग सोसाइटी में हुई हिंसा में मारे गए पूर्व कांग्रेस सांसद एहसान जाफ़री की पत्नी ज़क़िया जाफ़री ने इस फ़ैसले पर अपना असंतोष ज़ाहिर कर दिया है और इस मामले में वो हाई कोर्ट जाने की बात कह रही हैं.
इसका मतलब है कि ये प्रकिया अभी आगे चलेगी. हाई कोर्ट इस बारे में क्या कहता है, देखना होगा. पता नहीं अभी इसमें कितने साल और लगेंगे.
लोग असंतुष्ट हैं. उन्हें ये न्याय अधूरा लग रहा है क्योंकि उस दिन जो हुआ था, उसके लिए सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी विश्व हिंदू परिषद पर आती है और अदालत ने वीएचपी के स्थनीय नेता अतुल वैद्य को ही बरी कर दिया है.
कांग्रेस के एक पूर्व पार्षद को भी बरी कर दिया है. इससे अधूरा न्याय मिलने की भावना और प्रबल होगी.
इस तरह, अदालत का फ़ैसला मिला जुला है.
जो लोग गुलबर्ग सोसाइटी में रहते थे, उन्होंने न सिर्फ़ अपनों को खोया, बल्कि उनकी ज़िंदगी भी बर्बाद हो गई. जो लोग वहां बचे थे वो भी वहां से चले गए.
उनके लिए कोई सरकारी योजना नहीं आई. उन लोगों को तो अपनी जिंदगी निर्वासित की तरह बितानी पड़ रही है.
2002 से पहले जहां अहमदाबाद में हिंदू और मुसलमानों की आबादी साथ साथ रहती थी, दंगों के बाद मुसलमान घीटो यानी एक ही ख़ास इलाक़े में सिमट कर रहने लगे. सूरत और बड़ोदरा में भी ऐसे ही हालात हैं.
यही नहीं, गुजरात में 10 फ़ीसदी मुसलमान आबादी के मन में ये भावना घर गई गई है कि वो दोयम दर्जे के नागरिक हैं.
कई संगठन मुसलमानों को इस मनस्थिति से निकालने के लिए प्रयास कर रहे हैं, उन्हें शिक्षा की तरफ़ ले जा रहे हैं. इसलिए 2002 में जिन मुसलमान शिक्षण संस्थानों की संख्या 200 के आसपास थी, वो अब 800 के आसपास हो गए हैं.
ये बहुत बड़ी बात है. मुसलमानों से सोचा कि हम अपने लड़के और लड़कियों को पढ़ाएं और उन्हें आगे बढ़ाए. 2002 के दंगों का एक असर ये भी हुआ है.
गुलबर्ग सोसाइटी: 'देर से आया एक फ़ैसला'
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