रोहिंग्या मुसलमानों का मसला कई दिनों से चित्त को मथे हुए है। टीवी चैनल्स में कल बंगाल के एक मौलवी देश को चीख चीख कर चैलेंज दे रहे थे कि हिम्मत हो तो कोई इन्हें यहां से निकाल कर दिखाए। सियासी दलों के नुमाइंदों की नोकझोंक भी कानों में घुसी। मानवाधिकारवादियों के तर्क भी पढे। सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार के हलफनामे पर भी सरसरी नजर डाली। बौद्धिकों के इनके पक्ष में पारित  प्रस्ताव व अपीलें भी अखबारों में पढ़ीं। दिमाग में भरी हुई इन तमाम बातों पर विचार करते हुए सोया तो रात को एक भयावह सपने ने झिंझोड़ दिया।

सपने में देखा था कि बांग्लादेश की सीमा पर हमारे बीएसएफ के जवानों की लाशों को किसी मवेशी की तरह लटकाए बांग्लादेश रायफल्स के जवान अपने बैरकों की ओर लिए जा रहे थे। वे भारतीय सीमा में घुसपैठ कराने के लिए वैसी ही कवर फायरिंग दे रहे थे जैसे इधर पाकिस्तान दिया करता है। फिर दिमाग में जोर लगाया कि भूतकाल में जरूर ऐसी कोई घटना घटी होगी। सुबह सुबह गूगल गुरू की शरण में गया। 25 अप्रैल 2001 को छपी नवभारतटाइम्स की खबर निकल कर सामने आ गई। खबर यह थी कि भटक कर बांग्लादेश की सीमा में फंसे बीएसएफ के 16 जवानों को बांग्लादेश राइफल्स वालों ने पकड़ लिया था और उन्हें अमानुषिक यातनाएं देकर मार ड़ाला। सबको बकरे की तरह हलाल किया गया था। वो तस्वीर दिमाग में अभी भी अमिट है जिसमें सोलहों जवानों को कत्ल किए गए पशु की तरह बांस के डंडे में लटकाकर नुमाइश की गई थी। पत्रकारिता के पेशे में काम करने वाले मित्र स्मृति में जोर डालेंगे तो संभव है वो दृश्य उन्हें भी दिखे। 16 साल पहले यह खबर कई अखबारों में पहले पन्ने पर छपी थी। समूची दुनिया ने इस पाशविक कृत्य की भर्त्सना की थी।  सरकार अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की ही थी। जवाब में कोई सर्जिकल स्ट्राइक हुई या अन्तर्राष्ट्रीय अदालत ने कुछ किया इसका फालोअप याद नहीं। सिर्फ ये कल्पना कर सकते हैं कि उन शहीद बीएसएफ जवानों की विधवा पत्नियों को मौत के मुआवजे के तौर पर कुछ लाख अवश्य मिले होंगे।

यह कार्रवाई उस बांग्लादेश ने की जिसे हमने पाकिस्तान की यातना शिविर से निकाल कर आजाद हवा में सांस दी। उस बांग्लादेश के लाखों लाख शरणार्थियों को सम्मान के साथ पाला। अपनी रोटी का आधा हिस्सा दिया। सन् 71 के वे दिन याद हैं मुझे जब हर वस्तु में शरणार्थी सहायता का टैक्स लगा करता था। फंड के लिए अलग से डाक टिकट जारी किया गया था। उसी साल ..खाज.. की संक्रामक त्वचा बीमारी फैली थी। गांव के डाक्टर लोग कहते थे कि इसे बंगलादेशी शरणार्थी लाए हैं। खैर अपने यहां एक कहावत है कि अनावश्यक ही किसी को लादे लादे फिरे तो लोग कहते हैं.. कि ये क्या खाज पाले फिर रहे हो..। बांग्लादेश की शरणार्थी समस्या वाकई उन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खाज ही थी फिर भी देशवासियों ने उसे हँसी खुशी के साथ पालकर अपना धर्म निभाया। और बांग्लादेश ने...? ऊपर की एक घटना बताई, दूसरी घटना क्रिकेट की है जिसमें हमारे खिलाड़ियों के सिर की बोली लगाई गई थी,मजाक बनाया गया था वो भी तब जब हमारी टीम ढाका खेलने गई थी कोई डेढ साल पहले की बात है। पाकिस्तान के समानांतर बांग्लादेश में भी अलकायदा, आईएस, पाकिस्तान पालित और बंगलादेशी आतंकी समूह पल रहे हैं। देश की कई जघन्य आतंकवादी घटनाओं में उनका हाथ है। वहाँ भारत के प्रति नफरत का स्तर पाकिस्तान से कम नहीं। यह उस देश की कथा है जिसे हमने पैदा किया पाला पोसा और बड़ा किया।

अब बांग्लादेश का उदाहरण पृष्ठभूमि में और रोहंग्या का मसला सामने है। यह सही है कि हम वसुधैव कुटुम्बकम के पक्षधर रहे हैं। यहूदी, पारसी,तिब्बती बौद्धों को सम्मान पूर्वक शरण दी। ये भी हमारी भारतीयता में जज्ब हो गए। तब स्थितियां अलग थी। सोच और स्वार्थ के दायरे इतने संकीर्ण नहीं थे। रोहंग्या म्यांमार में वैसे नहीं प्रताड़ित हैं जैसे बंग्लादेश पाकिस्तान से था। यदि बौद्धों से उनका झगड़ा है तो उसकी वजह होगी। बैठे ठाले ये हो नहीं सकता। जब यूरोप और अमेरिका के सुविधा संपन्न मुसलमानों में धर्म के आधार पर आतंकवाद ने इतनी गहरी पैठ जमा ली तो भुख्खड़ म्यांमार तो और आसान है। यह सही है कि आतंकी समूह मुटठी भर ही होंगे पर उन्हें तो उनके समाज में ही पनाह मिली है । देश  पहले ही पश्चिम बंगाल और असम में घुसपैठी बंगलादेशियों की आफत से जूझ रहा है। उन्हें ही संभाल पाना मुश्किल है ऊपर से रोहंग्या का बोझ। दरअसल रोहंग्या को शरण देने की बात वोटों  की तिजारत का एक ड्रामा है ही है। असम और बंगाल के चुनावों में घुसपैठियों की बड़ी भूमिका निर्णायक होती है। रोहंग्याओं को शरण देने का प्रस्ताव करने वालों को म्यांमार की सत्ता प्रमुख सू की पर नैतिक दवाब बनाना चाहिये न कि अपने सरकार पर। भारत मानवीयता के आधार पर भरपूर मदद दे रहा है। राष्ट्र भावनाओं भर से नहीं चलता। आगे पीछे की सोचना जरूरी है। बांग्लादेश के शरणार्थियों की मदद और फिर बाद का उनका व्यवहार रोहंग्या मामले के लिए भी नजीर है।