नई दिल्ली : सबसे बड़ा सर्च इंजन गूगल अब देश में बैलून्स के जरिए इंटरनेट फैसिलिटी मुहैया कराएगा। मोदी सरकार ने गूगल के लून प्रोजेक्ट के पायलट फेज को मंजूरी दे दी है। प्रोजेक्ट लून के तहत गूगल जमीन से 20 किलोमीटर की ऊंचाई पर बैलून्स रखेगा। ये बैलून्स 40 से 80 किमी के एरिया में इंटरनेट फैसिलिटी देंगे। अभी इस पायलट प्रोजेक्ट के लिए जगहों की पहचान नहीं हो पाई है।
क्या है यह प्रोजेक्ट?
एक सरकारी अफसर के मुताबिक, ''गूगल ने लून प्रोजेक्ट और ड्रोन बेस्ड इंटरनेट ट्रांसमिशन के लिए सरकार से मंजूरी मांगी थी। सरकार ने फिलहाल लून प्रोजेक्ट के पायलट फेज की टेस्टिंग को मंजूरी दी है।''
टेस्टिंग के लिए शुरुआती दौर में गूगल बीएसएनएल के साथ हाथ मिला सकती है। इसके लिए 2.6GHz बैंड में ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल किया जाएगा।
ड्रोन प्रोजेक्ट के तहत गूगल 8 बड़े सोलर पावर्ड ड्रोन्स के जरिए इंटरनेट ट्रांसमिट करेगा। हालांकि, सरकार ने इस प्रोजेक्ट को अभी तक मंजूरी नहीं दी है।
सरकार को क्या होगा फायदा?
सूत्रों के मुताबिक, गूगल इसे टेक्नोलॉजी सर्विस प्रोवाइडर के तौर पर इस्तेमाल करेगा, इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर के तौर पर नहीं।
सूत्रों का कहना है, ''मिनिस्ट्री ऑफ कम्युनिकेशन एंड आईटी के तहत आने वाले डिपार्टमेंट ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (DeitY) की कमेटी जगहों की पहचान, एजेंसियों के साथ को-ऑर्डिनेशन आदि के लिए इस सुविधा का इस्तेमाल करना चाह रही है।''
इससे सरकार उन इलाकों में भी इंटरनेट कनेक्टिविटी पहुंचा सकेगी, जहां लोकल टावर लगाना मुमकिन नहीं है। एक बैलून से बड़ा एरिया कवर हो सकेगा।
कैसे काम करेगा लून प्रोजेक्ट?
लून प्रोजेक्ट के तहत किसी एरिया की पहचान कर वहां 20 किमी की ऊंचाई पर बैलून प्लांट किए जाएंगे।
इंटरनेट प्रोवाइड करने के लिए यह वायरलेस कम्युनिकेशन्स टेक्नोलॉजी एलटीई या 4जी का इस्तेमाल करेगा।
प्रोजेक्ट के लिए गूगल सोलर पैनल और विंड पावर इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेस का इस्तेमाल करेगा।
हर बैलून 40 से 80 किमी के एरिया में इंटरनेट कनेक्टिविटी देगा।
कितनी ऊंचाई पर लगाए जाएंगे बैलून?
इन बैलून्स की 20 किमी की ऊंचाई के मायने हैं 60 हजार फीट। यानी जिस ऊंचाई पर पैसेंजर प्लेन उड़ान भरते हैं, उससे दोगुनी ऊंचाई। आम तौर पर पैसेंजर प्लेन 30 हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ान भरते हैं।
ये बैलून जिस ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं, वह स्ट्रैटोस्फीयर कहलाता है। बैलून पाॅलीथिन प्लास्टिक की शीट से बनाए जाते हैं। इन्हें एनवेलप कहते हैं। ये गोलाई में 15 मीटर और ऊंचाई में 12 मीटर होते हैं।
इस एनवेलप में गैस भरी जाती है और इन्हें 20 किमी की ऊंचाई पर रखा जाता है।
लून प्रोजेक्ट के वाइस प्रेसिडेंट माइक कैसिडी के मुताबिक, ''शुरुआती दौर में हमारे पास ऐसे बैलून थे जो पांच, सात या दस दिन तक ही टिकते थे। अब हमारे पास ऐसे बैलून्स हैं जो 187 दिनों तक हवा में रह सकते हैं।''
पहले इसे लॉन्च करने में 14 लोगों की जरूरत पड़ती थी। अब ऑटोमेटेड क्रेन के जरिए हर 15 मिनट में एक बैलून हवा में प्लांट किया जा सकता है। इसमें ऑटोमैटेड गैस सप्लाई होती रहती है। इनमें सोलर पैनल लगे हाेते हैं, जो इलेक्ट्रॉनिक सप्लाई करते रहते हैं।
जब सर्विस खत्म हो जाती है तो क्या होता है?
जब बैलून की सर्विस खत्म हो जाती है तो गैस कम करते हुए उसे नीचे लाया जाता है।
बैलून को उतारने की प्रॉसेस कंट्रोल से बाहर न हो, इसको लिए बैलून के ऊपर एक पैराशूट भी फिक्स कर दिया जाता है।
अगर उतारे जाने के दौरान बैलून बैलेंस खो दे या डायरेक्शन से भटक जाए तो पैराशूट का ट्रिगर दबा दिया जाता है।
अभी कहां-कहां चल रहा है गूगल का यह प्रोजेक्ट?
गूगल ने इस प्लान पर 2013 में काम शुरू किया था।
हाल ही में गूगल ने इंडोनेशिया में प्रोजेक्ट लून को आगे बढ़ाया है। इंडोनेशिया का जियोग्रैफिकल स्ट्रक्चर प्रोजेक्ट लून को बेहतर बना रहा है।
इससे पहले न्यूजीलैंड, कैलिफोर्निया (अमेरिका) और ब्राजील जैसे कुछ देशों में इस टेक्नोलॉजी का टेस्ट चल रहा है।
अगले साल तक दुनिया भर में गूगल बैलून्स का रिंग बनाएगा। यह रिंग कुछ इलाकों में हमेशा इंटरनेट कनेक्टिविटी कवरेज देगा।
\'बैलून इंटरनेट\' परियोजना पर काम चालू
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