मेरे पास लोग आते हैं। जब वे अपने दुख की कथा रोने लगते हैं, तो बड़े प्रसन्न मालूम होते हैं। उनकी आंखों में चमक मालूम होती है। जैसे कोई बड़ा गीत गा रहे हों! अपने घाव खोलते हैं, लेकिन लगता है जैसे कमल के फूल ले आए हैं। सुख की तो कोई बात ही नहीं करता। और ऐसा नहीं है कि सुख नहीं है; हम सुख पर पर ध्यान नहीं देते हैं। हम दु:ख-दुख चुन लेते हैं; हम सुख की उपेक्षा कर देते हैं। फिर जिसकी उपेक्षा कर देते हैं, स्वभावत: धीरे-धीरे वह दूर चला जाता है और जिसमें हम रस लेते हैं वह पास होता चला जाता है।
संतों की बात तुम्हें तभी जमेगी, रुचेगी, भली लगेगी, प्रीतिकर मालूम होगी-जब तुम दुख को पकड़ना छोड़ दोगे; जब तुम जागोगे और सुख की सचेष्ट खोज शुरू करोगे। तुम्हारे भीतर अगर अभी भी दुख को पकड़ने का आयोजन चल रहा है, तो संतों के वचन तुम्हारे कानों में गूजेंगे और खो जाएंगे। तुम्हारे हृदय तक नहीं पहुंचेंगे। क्योंकि संतों के वचनों में बड़ा सुख भरा है। तुम सुखोन्मुख हो जाओ, तुम आनंद की खोज में लग जाओ; तो ये एक-एक शब्द ऐसे जाएंगे तुम्हारे भीतर जैसे तीर चले जाएं। और ये एक-एक शब्द तुम्हारे भीतर ऐसे-ऐसे हजार-हजार फूल खिला देंगे, जैसे कभी न खिले थे। तुम्हारे भीतर बड़ी रोशनी होगी।
ये छोटे-छोटे शब्द हैं। मगर ये बड़े सार्थक शब्द हैं। सुनो- ‘बोलू हरिनाम तू छोड़ि दे काम सब, सहज में मुक्ति होई जाय तेरी।काम यानी कामना। काम यानी वासना। काम यानी इच्छा, तृष्णा। यह मिले वह मिले-कुछ मिले! जब तक हम मिलने की दौड़ में होते हैं, हम भिखमंगे होते हैं। और जब तक हम भिखमंगे होते हैं, तब तक परमात्मा नहीं मिलता। परमात्मा भिखमंगों को मिलता ही नहीं। परमात्मा सम्राटों को मिलता है। परमात्मा उनको मिलता है जो अपने मालिक है। परमात्मा उनको मिलता है जो कुछ मांगते ही नहीं।
असल में वे ही परमात्मा को मांगने में कुछ सफल हो पाते हैं, जो और कुछ नहीं मांगते। जिन्होंने कुछ और मांगा, वे परमात्मा को कैसे मांगेंगे। वह जबान फिर परमात्मा को मांगने के योग्य न रह गई। वह जबान अपवित्र हो गई। जिस जबान से बेटा मांगा, बेटी मांगी, धन मांगा, पद मांगा, प्रतिष्ठा मांगी-उसी जबान से परमात्मा को मांगोगे? इस जहर भरे पात्र में अमृत रखोगे? यह जबान जब तक मांगती है तब तक संसार है। जिस दिन यह जबान मांगती नहीं, उस दिन परमात्मा की यात्रा शुरू हुई। उस दिन बिन मांगे मिलता है। ऐसे तो मांगे-मांगे भी नहीं मिलता।
सुख की उपेक्षा क्यों?
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