सतोगुण में ज्ञान के विकास से मनुष्य यह जान सकता है कि कौन क्या है, लेकिन तमोगुण तो इसके सर्वधा विपरीत होता है। जो भी तमोगुण के फेर में पड़ता है, वह पागल हो जाता है और पागल पुरुष यह नहीं समझ पाता कि कौन क्या है! वह प्रगति करने के बजाय अधोगति को प्राप्त होता है। वैदिक साहित्य में तमोगुण की परिभाषा दी गई है कि अज्ञान के वशीभूत होने पर कोई मनुष्य किसी वस्तु को यथारूप नहीं समझ पाता। उदाहरणार्थ, प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि मनुष्य मत्र्य है और मृत्यु ध्रुव है। फिर भी लोग पागल होकर धन संग्रह करते हैं और नित्य आत्मा की चिन्ता किये बिना अहर्निश कठोर श्रम करते हैं।  
अपने पागलपन में वे आध्यात्मिक ज्ञान में कोई उन्नति  नहीं  कर पाते। ऐसे लोग आलसी होते हैं। जब उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान में सम्मिलित होने के लिए आमत्रित किया जाता है, तो वे अधिक रुचि नहीं दिखाते। वे रजोगुणी व्यक्ति की तरह भी सप्रिय नहीं रहते। तमोगुण में लिप्त व्यक्ति का एक अन्य गुण यह भी है कि वह आवश्यकता से अधिक सोता है। ऐसा व्यक्ति सदैव निराश प्रतीत होता है और भौतिक द्रव्यों तथा निद्रा के प्रति व्यसनी बन जाता है।  
इसके विपरीत सतोगुणी पुरुष अपने कर्म या बौद्धिक वृत्ति से उसी तरह सन्तुष्ट रहता है, जिस प्रकार दार्शनिक, वैज्ञानिक या शिक्षक अपनी-अपनी विधाओं में निरत रहकर सन्तुष्ट रहते हैं। रजोगुणी व्यक्ति सकाम कर्म में लग सकता है। वह यथासंभव धन प्राप्त करके उसे उत्तम कार्य में व्यय करता है। कभी-कभी वह अस्पताल खोलता है और धर्मार्थ संस्थाओं को दान देता है। लेकिन तमोगुणी तो अपने ज्ञान को ढक लेता है। तमोगुण में रहकर मनुष्य जो भी करता है, वह न तो उसके लिए, न किसी अन्य के लिए हितकर होता है। जब तमोगुण प्रधान होता है तो रजो तथा सतोगुण परास्त हो जाते हैं। यह प्रतियोगियता निरन्तर चलती रहती है। अतएव जो कृष्णभावनामृत में वास्तव में उन्नति करने का इच्छुक है, उसे इन तीनों गुणों को लांघना पड़ता है।