आस्था का निर्माण हुए बिना ध्यान में जाने की क्षमता अर्जित नहीं हो सकती। कुछ व्यक्तिियों में नैसर्गिक आस्था होती है और कुछ व्यक्तिियों की आस्था का निर्माण करना पड़ता है। आस्था पर संकल्प का पुट लग जाए और अनवरत अभ्यास का प्रम चलता रहे तो आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। अभ्यास ऐसा तत्व है जो साधना की श्रृंखला को बराबर जोड़े रखता है। अभ्यास की धारा टूटने से सफलता संदिग्ध हो जाती है। आस्था, संकल्प और अभ्यास इन तीन तत्वों के अधिगत हो जाने के बाद साधक में आत्मानुशासन का विकास हो जाता है। यह अनुशासन आरोपित नहीं होता, सहज स्वीकृत होता है। इस अनुशासन में संयम के विकास की अनिवार्यता है।
संयम से हमारा प्रयोजन है तन्मयता से। यह तन्मयता ही भावक्रिया है। केवल त्याग-प्रत्याख्यान से संयम नहीं सध सकता। त्याग-प्रत्याख्यान भी साधना का एक प्रकार है, किंतु उसमें पूर्णता नहीं है। साधना में पूर्णता लाने के लिए संयम के साथ भावक्रिया का होना नितांत अपेक्षित है।
पूर्ण संयम का विकास तब हो सकता है, जब पदार्थ-प्रयोग से मन विरत हो। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि संयम के प्रति रति होने से पदार्थ-भोग के प्रति अरति हो जाती है। अनुराग से विराग का होना एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। बच्चे के हाथ से किसी वस्तु को छुड़ाने के लिए उसे किसी दूसरी वस्तु के प्रति आकृष्ट करना होता है।
अन्यथा वह उसे छोड़ नहीं सकता। पदार्थ-विरति भी उसी क्षण घटित हो सकती है, जिस क्षण आत्मा या चैतन्य के साथ उसका संबंध स्थापित हो जाता है। यह स्थिति पतंजलि के शब्दों में धारणा के रूप में निरूपित की गई है। धारणा की धाराप्रवाह प्रतीति ध्यान है और ध्यान में पूर्ण तन्मयता का नाम समाधि है। संयम की पूर्णता के लिए धारणा, ध्यान और समाधि तीनों ही आवश्यक हैं। ध्यान साधना के अनुशासन की पूरी प्रक्रिया शिविर-साधना को आगे बढ़ाती है। साधक की शारीरिक और मानसिक स्थिति में संयम या साधना के अनुशासन की पूर्ण स्वीकृति ही शिविर-साधना का ठोस आधार है।
ध्यान-तन्मयता का नाम समाधि
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