ईश्वर क्षेत्रज्ञ या चेतन है, जैसा कि जीव भी है, लेकिन जीव केवल अपने शरीर के प्रति सचेत रहता है, जबकि भगवान समस्त शरीरों के प्रति सचेत रहते हैं। चूंकि वे प्रत्येक जीव के हृदय में वास करने वाले हैं, अतएव वे जीवविशेष की मानसिक गतिशीलता से परिचित रहते हैं। परमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय में ईश्वर या नियंता के रूप में वास कर रहे हैं और जैसा जीव चाहता है वैसा करने के लिए जीव को निर्देशित करते रहते हैं। जीव भूल जाता है कि उसे क्या करना है। पहले तो वह किसी एक विधि से कर्म करने का संकल्प करता है, लेकिन फिर वह अपने ही कर्म के पाप-पुण्य में फंस जाता है। वह एक शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर ग्रहण करता है।
चूंकि इस प्रकार वह आत्मा देहांतरण कर जाता है, अत उसे अपने विगत (पूर्वकृत) कर्मो का फल भोगना पड़ता है। ये कार्यकलाप तभी बदल सकते हैं जब जीव सतोगुण में स्थित हो और यह समझे कि उसे कौन से कर्म करने चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो उसके विगत कर्मो के सारे फल बदल जाते हैं। इसीलिए हमने यह कहा है कि पांच तत्वों- ईश्वर, जीव, प्रकृति, काल तथा कर्म में से चार शात हैं, कर्म शात नहीं है।
परम चेतन ईश्वर जीव से इस मामले में समान हैं- भगवान तथा जीव दोनों की चेतनाएं दिव्य हैं। यह चेतना पदार्थ के संयोग से उत्पन्न नहीं होती है। ऐसा सोचना भ्रांतिमूलक है। किंतु भगवान की चेतना भौतिकता से प्रभावित नहीं होती है। भगवान कहते हैं- जब वे इस भौतिक वि में अवतरित होते हैं तो उनकी चेतना पर भौतिक प्रभाव नहीं पड़ता। यदि वे इस तरह प्रभावित होते तो दिव्य विषयों के संबंध में उस तरह बोलने के अधिकारी न होते जैसा कि वे भगवद्गीता में बोलते हैं। भौतिक कल्मष-ग्रस्त चेतना से मुक्त हुए बिना कोई दिव्य-जगत के विषय में कुछ नहीं कह सकता। अत: भगवान भौतिक दृष्टि से कलुषित (दूषित) नहीं हैं। भगवद्गीता तो शिक्षा देती है कि हमें इस कलुषित चेतना को शुद्ध करना है।
कर्म के पाप-पुण्य में फंस जाता है जीव
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