एक बार की बात है। एक व्यक्ति का पुत्र कमाने के लिए विदेश गया। विदेश कमाने गए पुत्र ने अपने पिता को एक बहुत ही सुंदर अंगूठी भेजी। पत्र में उसने लिखा, ‘पिताजी! आपको मैं एक अंगूठी भेज रहा हूं। उसका मूल्य है पांच हजार रुपए। मुङो सस्ते में मिल गई थी, इसलिए मैंने आपके लिए खरीद ली’ बेटे द्वारा भेजी गई अत्यंत सुंदर अंगूठी पाकर पिता प्रसन्न हो गया। पिता ने बड़े शौक से वह अंगूठी पहन ली। अंगूठी बहुत ही चमकदार और सुन्दर थी। बाजार में पिता को कई मित्र मिले। नई अंगूठी को देख कर सबने पूछा, ‘यह कहां से आई?’ पिता ने कहा, ‘मेरे लड़के ने विदेश से भेजी है। इसे खरीदने में उसने पांच हजार रुपए खर्च किए’ पिता का एक मित्र बोला, ‘क़्या इसे बेचोगे? मैं इस अंगूठी के पचास हजार रुपये दूंगा। ’
पिता ने सोचा, पांच हजार की अंगूठी के पचास हजार रुपये मिल रहे हैं। इतने रुपयों में ऐसी दस अंगूठियां आ जाएंगी। उसने अंगूठी निकाल कर दे दी और अपने मित्र से पचास हजार रुपए ले लिए। फिर उसने पुत्र को पत्र लिखा, ‘तुमने शुभ मुहूर्त में अंगूठी भेजी। उसे मैंने पचास हजार रुपए में बेच कर पैंतालीस हजार रुपए का लाभ अर्जित कर किया’। लौटती डाक से पुत्र का पत्र आया, ‘पिताजी! संकोच और भयवश मैंने आपको पिछले पत्र में सच्चाई नहीं लिखी थी। वह अंगूठी एक लाख की थी’ यह सत्य को झुठलाने का परिणाम था।
सच को छुपाने का परिणाम
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