नयी दिल्ली : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आरोप लगाया है कि हाल के दिनों में देश में कथित रूप से असहिष्णुता के विरोध में लेखकों के एक वर्ग द्वारा सम्मान लौटाया जाना वर्तमान राजग सरकार के तहत देश को विकास की ओर बढ़ता देख भारत के खिलाफ कोई बड़ी साजिश है और ये कलमकार उसकी कठपुतली बने हैं।

संघ के मुखपत्र 'पांचजन्य' का नवीन अंक मुख्यत: इसी विषय पर केंद्रित है। इसमें 'कहां बचा सम्मान' शीर्षक से बहुत सारे लेख और उपलेख प्रकाशित हुए हैं। इसमें कहा गया कि साहित्य के क्षेत्र में कुछ नाम आजकल सुर्खियां बनने की होड़ में हैं। एक खास बिरादरी के अगुआ कहलाने वाले इन साहित्यकारों ने चुनिंदा घटनाओं की आड़ लेकर पुरस्कार लौटाने की शुरुआत तो की लेकिन बाकी मामलों पर चुप्पी के चलते घिर गए।

एक लेख के अनुसार, सोनिया-मनमोहन शासन के दौरान मारे गए तर्कवादी दाभोलकर पर खामोश लेकिन अखलाक की मौत के बहाने सरकार पर निशाना लगाने की सेकुलर मुहिम भेड़चाल का रंग लेती, इससे पहले ही इसकी असलियत खुलने लगी। अपने तर्को को बढ़ाते हुए लेख में दावा किया गया कि जुलाई 2013 में मेरठ के पास नागलमल स्थान पर एक मंदिर में लाउडस्पीकर पर भजन बजने के विरूद्ध कथित रूप से स्थानीय मुसलमानों की भीड़ ने भक्तों को पीटा जिसमें 12 लोग मारे गए और दर्जनों घायल हुए। लेकिन तब सेकुलर साहित्यकार का मन न आहत होना था और न हुआ। एक अन्य घटना का उल्लेख करते हुए लेख में कहा गया कि बेंगलूरू में कांग्रेस के राज में 2014 में गोवध के विरोध में पुस्तक बांट रहे एक हिन्दू कार्यकर्ता को कथित रूप से उन्मादी भीड़ ने घेर कर पीटा। लेकिन तब भी सेकुलर खामोशी बरकरार रही।  

पांचजन्य के लेख में सेकुलर साहित्यकारों को आड़े हाथों लेते हुए कहा गया कि सितंबर 2014 में मध्यप्रदेश में जब कुछ मुस्लिम महिलाएं मांस रहित ईद मनाने का अभियान चला रही थीं तब मुसलमानों की भीड़ ने उन पर पत्थर बरसाये लेकिन 'सेकुलर जुबान तब तालू से चिपकी' रही। इसमें कहा गया, सवाल है, इन कलमवीरों की आह में इतनी राजनीतिक पक्षधरता क्यों है ? ऐसे लोगों के बारे में एक वर्ग में यह आशंका भी है कि कहीं वर्तमान राजग सरकार के नेतृत्व में देश को विकास पथ पर बढ़ता देख भारत के खिलाफ कोई बड़ी साजिश तो नहीं रची गई है, जिसकी कठपुतली बनकर ये लोग अपने ही देश की छवि बिगाड़ने की चालें चल रहे हैं।  

मुखपत्र के संपादकीय में भी सवाल किया गया, क्या सेकुलर प्रगतिशील नजरों में भारतीय नागरिक सिर्फ भारतीय नहीं हो सकता? क्या उसे हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई में बांटे और सुविधानुसार छांटे बिना काम नहीं चल सकता? संपादकीय में कहा गया, सामूहिक हत्याकांडों पर चुप्पी और चुनिंदा हत्याओं पर हाहाकार वाली इस गंभीर साहित्यिक मुद्रा को भी लोग समझना चाहते हैं। समाज की सहनशीलता घटी है या असहिष्णु साहित्यकारों को छांह देने वाली छतरी हटी है? लोक व्यथित साहित्यिक मन की थाह पाना चाहते हैं।