एक बार काशी में भव्य सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन किया गया। महात्मा गांधी भी उस सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए पहुंचे। उसमें भाग लेने के लिए देश के कोने-कोने से कई विद्वान और संत भी आए थे।
सभी संतों ने गांधी जी का नाम सुन रखा था, अत: वे उनसे अनौपचारिक बात करने के इच्छुक थे और उनके निजी जीवन के बारे में जानना चाहते थे।
सम्मेलन खत्म होने के बाद एक संत ने गांधी जी से पूछा, ''आप कौन-सा धर्म मानते हैं और ङ्क्षहदुस्तान के भावी धर्म का स्वरूप क्या होगा?''
गांधी जी ने उनसे कहा, ''सेवा करना ही मेरा धर्म है और मेरा ऐसा मानना है कि आप लोगों को भी इस धर्म को अपनाना चाहिए।''
संत ने फिर पूछा, ''मगर सेवा तो सभी करते हैं तो क्या यह मान लिया जाए कि पूजा-पाठ, धर्म-कर्म सब मिथ्या है, इसको छोड़ देना चाहिए?''
गांधी जी ने कहा, ''मेरा मतलब यह नहीं कि पूजा-पाठ छोड़ दिया जाए। मन की शांति के लिए यह सब करना भी जरूरी है। यदि मेरे लिए लेटे-लेटे चरखा चलाना संभव हो और मुझे लगे कि इससे ईश्वर पर मेरा चित्त एकाग्र होने में मदद मिलेगी तो मैं जरूर माला छोड़कर चरखा चलाने लगूंगा।''
''चरखा चलाने की शक्ति मुझमें हो और मुझे यह चुनाव करना हो कि माला फेरूं या चरखा चलाऊं? तो जब तक देश में गरीबी और भुखमरी है, तब तक मेरा निर्णय निश्चित रूप से चरखे के पक्ष में होगा और उसी को मैं अपनी माला बना लूंगा। चरखा, माला और राम नाम सब के सब मेरे लिए एक ही हैं। वे सब एक ही उद्देश्य पूरा करते हैं- वह है मानव की सुरक्षा करना, अपनी रक्षा करना।''
''मैं सेवा का पालन किए बिना अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। अहिंसा धर्म का पालन किए बिना मैं सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता और आप तो मानते ही होंगे कि सत्य के सिवाय दूसरा कोई धर्म भी नहीं है।''
सभी संतों ने गांधी जी के इन विचारों से पूर्ण सहमति जताई और उसी रास्ते पर चलने का संकल्प लिया। इस तरह गांधी जी ने अपने जीवन में अनेक लोगों को सत्य की राह पर चलने की प्रेरणा दी।