मेरी आगामी फिल्म 'हैप्पी न्यू इयर' में छह किरदार हैं। फिल्म के अंदर हम खुद को इंडिया वाले बोलते हैं। मुझे यह शब्द अच्छा लग रहा है। अपनी फिल्म के लिए हमने इसे गढ़ा है। देशवासी, भारतीय, हिंदुस्तानी, इंडियन ये सब पहले से प्रचलित हैं। हम इनका इस्तेमाल करते रहे हैं। मुझे लग रहा है कि अब सब कुछ बदल रहा है तो ये शब्द भी बदल सकते हैं। भारतीय होने के मॉडर्न अहसास को यह शब्द सही तरीके से व्यक्त करता है। देशभक्ति पर मॉडर्न टेक है इंडिया वाले। हम देश के प्रति जो गर्व महसूस करते हैं वह समय के साथ आधुनिक हो गया है। पुराने समय के लोग कुछ अलग तरीके से सोचते थे। उनके लिए देशभक्ति का जो मतलब था, वह आज भी है। लेकिन अभी एक्सप्रेशन बदल गया है। मेरी हर फिल्म कामर्शियल होने के साथ कुछ अच्छी बातें भी करती हैं। मैंने कभी भी संदेश को मनोरंजन से बड़ा स्थान नहीं दिया, लेकिन मेरी हर फिल्म के आधार में नेक संदेश रहता है। उसी की वजह से मैं फिल्म करता हूं। अगर उसे कोई समझ ले तो बहुत अच्छा, जिसको अच्छा लगे वह अपना ले, जिसको बुरा लगे वह जाने दे।
'हैप्पी न्यू इयर' में माडर्न देशभक्ति है, जैसे कि 'चक दे' में थी। मेरा मानना है कि आतंकवादियों का कोई देश नहीं होता। देश, धर्म और रिश्तों से जो डरते या उनका लिहाज करते हैं वे ये सब काम नहीं कर सकते। गलत काम करने के पहले उन्हें अपने परिवार, समाज और देश का खयाल आएगा। इन लोगों का कुछ अपना ही नजरिया और मजहब होता है। वास्तव में वैसे इंसान ही अलग होते हैं। 'हैप्पी न्यू इयर' में जब कोई देश की बुराई करता है तो हमारे किरदार कहते हैं कि असली इंडिया वाले आएंगे तो सब ठीक कर देंगे। असली इंडिया वाले अभी देश का प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रहे हैं। इंटरनेशनल मंचों पर सही प्रतिनिधि नहीं भेजने से हम हारते और पिछड़ते रहे हैं। मुझे लगता है कि हमें उनका सिस्टम नहीं मालूम है। हमें ऑस्कर, ओलंपिक और अन्य इंटरनेशनल प्रतियोगिताओं को समझना होगा। मेरी 'पहेली' ऑस्कर में गई थी, हम लोग नहीं जीत पाए। हमें समझना होगा कि उनका सिस्टम क्या है? हमारे पास हर साल 30 ऐसी फिल्में होंगी, जो ऑस्कर जीत सकें। मुझे तो इतना ही कहना है कि इंटरनेशनल स्टैंडर्ड की चीजों में भाग लेना है तो हमें उसके स्टैंडर्ड को समझना होगा। मैं सबसे यही कहता हूं कि अगर मैं किसी प्रतियोगिता में शामिल हो रहा हूं तो उसके बारे में मुझे अच्छी तरह समझना होगा।
मैं हमेशा कहता हूं कि अगर किसी ने मुझे अपनी पार्टी में बुलाया है और यह कहा है कि टाई पहनकर आना तो मैं टाई पहनकर ही जाऊंगा। वैसे मैं पहनूं या न पहनूं, लेकिन वहां पहनकर जाना मेरा फर्ज है। इसी प्रकार इंटरनेशनल प्रतियोगिताओं में जाना है तो उन्हें अच्छी तरह समझना होगा। अभी कॉमनवेल्थ में हमारी लड़कियों ने पदक जीते। किसी को नहीं मालूम कि उन्होंने कैसे इतने पदक जीते। कोई तो होगा जो उन्हें प्रशिक्षित कर रहा होगा। ऐसे लोगों को बढ़ावा देना चाहिए। मेरे लिए यह माडर्न पैट्रियटिच्म है। अब इससे काम नहीं चलेगा कि हम सब जानते हैं और भारत देश हमारा इतना पुराना है। अब यह तरीका बदलना होगा। इस सोच से निकलना होगा। हमें दुनिया से सीखना और समझना होगा। बंद रहने से काम नहीं चलेगा। हमें उनकी भाषा समझनी होगी और फिर उन्हें मात देनी होगी। हम लोग उस मानसिकता में चले गए है, जहां गेम भी हमारा होगा, रूल भी हमारा होगा और हम जीतेंगे भी नहीं। हॉकी के मामले में कोई कहता है, वे एस्ट्रोटर्फ पर खेलते हैं। उन्होंने हमारी हॉकी को मार दिया। अगर पूरी दुनिया में वैसे ही खेला जा रहा है तो हमें वही खेलना होगा। हम तो वर्ल्ड चैंपियन रहे हैं। ओलंपिक में 8 गोल्ड मेडल जीत चुके हैं। हमें हार नहीं माननी चाहिए, छोड़ना नहीं चाहिए। दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलना चाहिए। यह आधुनिक देशभक्ति है। हमारे अंदर जीत का जच्बा आना चाहिए।
मुझे अपनी फिल्मों पर बहुत गर्व है। मैं भारत की फिल्में बहुत पसंद करता हूं। हमें भारतीय होने पर गर्व होना चाहिए। अपनी हार और जीत पर भी गर्व होना चाहिए। हमें अपनी फिल्मों के नाच-गाने और खुश रहने की शैली पर गर्व होना चाहिए। हमारी फिल्म में एक लाइन है, हारो तो हारो, पर इज्जत मत उतारो। मेरे लिए वह फिल्म की मेन लाइन है। हर हाल में हमें अपना आत्माभिमान नहीं खोना चाहिए। देशभक्ति के लिए यह बहुत जरूरी है। कभी-कभी कुछ संहिताएं जारी होती हैं कि हमारी सभ्यता इसकी अनुमति नहीं देती। निश्चित रूप से इस पर नए ढंग से सोचने की जरूरत है। सभ्यता हमारी साझी थाती है। अगर समाज में कोई चीज हमारी सभ्यता के हिसाब से गलत है तो वह मेरे घर में भी गलत है, आपके घर में भी गलत है। मैं अपनी बेटी को ऐसा कुछ नहीं करने दूंगा जिससे सभ्यता पर आंच आए। यों फिल्में देखकर या किताबें पढ़कर कोई नहीं बदलता। फिर भी हम कोशिश करते हैं। पाठक या दर्शक थोड़ा समझदार हो तो वह समझ लेता है। सांस्कृतिक या कोई और राष्ट्रवाद ठीक है, अगर वह हमारी जिंदगी बेहतर बनाता है, हमें बेहतर नागरिक बनाता है। जिंदगी के हर क्षेत्र में अगर आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देता है तो उसे स्वीकार करना चाहिए। यह सब अगर नहीं होता है तो किसी भी प्रकार का राष्ट्रवाद हमें कुएं का मेंढक बना देता है। फिर 'हम और हमारा' ही चलता रहेगा। हम आत्म-मुग्ध रहेंगे और कहीं नहीं पहुंचेंगे। अभी ग्लोबल दौर में सभी एक-दूसरे को छू रहे है। सभी देशों और संस्कृतियों के बीच आदान-प्रदान हो रहा है। हम प्रभावित हो रहे हैं तो संस्कृति भी कुएं में नहीं रह सकती। हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति का प्रदर्शन पूरे गर्व से करना चाहिए। योग, आयुर्वेद, दर्शन और अन्य कई चीजें हमारे देश की देन हैं। इन्हें लेकर हम विदेशों में जा सकते हैं, किंतु उनकी पैकेजिंग वहां के हिसाब से करनी पड़ेगी। हमें अपनी सभ्यता बचाकर रखनी चाहिए, लेकिन इसके निर्यात के लिए दूसरे देशों की जरूरत भी समझनी चाहिए।
हम बहुत सारे क्षेत्रों में आगे बढ़ रहे हैं। बहुत कुछ हासिल करने वाले हैं। इस दौर में हमें निजी लाभ की मानसिकता से निकलना होगा। मेरा हो जाए, बाकी से हमें मतलब नहीं है। इस सोच को अपने सिस्टम से निकालना होगा। हम लोग इतने साल तक गुलाम रहे कि हमेशा निजी लाभ के चक्कर में पड़े रहते हैं। अपने और अपने परिवार के बारे में ही सोचते हैं। अंग्रेजों के समय से क्या बचा और छिपा लें या पा लें, इसी फिक्र में रहने लगे हैं। इसी में सुरक्षा समझते हैं। अभी देश संक्रमण से गुजर रहा है। देश के छोटे शहर और मध्य वर्ग के नागरिक लंबी और ऊंची छलांग लगा रहे हैं। हम सभी को निजी लाभ की संकीर्णता से निकलना होगा। मेरी पीढ़ी ऐसी मानसिकता की आखिरी पीढ़ी है। हमारे बच्चे खुली सोच के हैं। वे अपने साथ ही दूसरों की भी सोचते हैं। हम सुरक्षा की चिंता में ही घुलते रहे, नई पीढ़ी मौके आजमाने से नहीं हिचकती। वे इसी सांस्कृतिक माहौल में सब कुछ करेंगे। अगर हम अपनी संस्कृति को छोटा या पिछड़ा समझे बगैर दुनिया के साथ चल सकें तो अच्छी बात होगी। वे मूर्ख नहीं हैं। वे अलग तरीके से देश पर गर्व करेंगे। वे इंडिया वाले हैं।
शाहरुख खान: भारतीयता का आधुनिक अहसास
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