उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे तीरथ सिंह के इस्तीफे के बाद कयास लगने शुरू हो गए हैं कि केंद्र अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर भी पद छोड़ने का दबाव बनाएगा। दरअसल, ममता बनर्जी भी अपनी सीट से चुनाव हार गई थीं, लेकिन उसके बाद भी वे मुख्यमंत्री बनीं। संविधान के मुताबिक, किसी न किसी सीट पर 6 महीने के भीतर उपचुनाव कराकर उन्हें चुनाव जीतना होगा।
यही स्थिति तीरथ रावत की भी थी, लेकिन पार्टी ने उनसे इस्तीफा दिलवा दिया। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप के मुताबिक, दोनों राज्यों की तुलना करना ठीक नहीं है। उन्होंने भास्कर के साथ विशेष बातचीत में इस घटनाक्रम से जुड़े तमाम पहलुओं पर चर्चा की।
बंगाल और उत्तराखंड की सियासी स्थितियां अलग हैं
क्या तीरथ रावत से इस्तीफा दिलाकर केंद्र ने बंगाल की मुख्यमंत्री पर दबाव बनाने का रास्ता साफ कर लिया है? संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते हैं, 'दोनों राज्यों का कोई मेल नहीं है। उत्तराखंड में फरवरी में चुनाव होने हैं। लिहाजा, वहां एक साल तक उपचुनाव नहीं हो सकते। जबकि बंगाल में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। ममता बनर्जी 6 महीने के भीतर उपचुनाव करवा सकती हैं।'
क्या कोविड की वजह से निर्वाचन आयोग ये कर सकता है कि छह महीने बंगाल में उपचुनाव ही न होने दे? कश्यप कहते हैं, 'मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। विधानसभा चुनाव उस वक्त हुए, जब कोरोना संक्रमण चरम पर था। निर्वाचन आयोग ऐसा कदम नहीं उठाएगा, जिससे उस पर सीधे सवाल खड़े हों।'
ममता को विधान परिषद बनाने की जरूरत नहीं
बंगाल में ममता बनर्जी ने विधान परिषद गठन करने का कदम उठाया है। क्या विधान परिषद का गठन कर वे उपचुनाव से बचना चाहती हैं। क्या परिषद के रास्ते वे मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का अपना रास्ता साफ कर रही हैं? कश्यप कहते हैं, 'ऐसी चर्चाएं हैं, पर मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई दम है, जहां तक मैं जानता हूं, ममता बनर्जी अपने लिए सीट खाली भी करवा चुकी हैं और उन्हें चुनाव जीतने में भी कोई दिक्कत नहीं आएगी।'
वे कहते हैं, 'लिहाजा विधान परिषद का गठन इस मंशा से हुआ हो मैं इससे सहमत नहीं। ऐसा कहीं दर्ज तो नहीं, पर एक अनौपचारिक बैठक में सरदार पटेल के साथ कई लोग थे। तब पटेल ने कहा था कि राज्य में अपर हाउस इसलिए बनाया जाता है, ताकि बेरोजगार राजनेताओं को समायोजित किया जा सके। अगर ऐसा नहीं किया तो यह लोग गड़बड़ियां पैदा कर सकते हैं। मुझे यह बात उस अनौपचारिक बैठक में शामिल एक व्यक्ति ने बताई थी।'
वे आगे कहते हैं, 'जो लोग विधान परिषद के गठन को ममता बनर्जी के उपचुनाव न लड़ने से जोड़कर देख रहे हैं, उन्हें खुद से कुछ सवाल करने चाहिए। उन्हें पूछना चाहिए कि केंद्र की मुहर के बिना राज्य के अपर हाउस का गठन हो नहीं सकता और सभी जानते हैं कि केंद्र और राज्य के संबंध कैसे हैं? क्या केंद्र ममता बनर्जी के फायदे के लिए इस पर मुहर लगाएगा? क्या यह बात ममता नहीं जानतीं?'
केंद्र सरकार चाहती तो तीरथ को बचा सकती थी
तीरथ सिंह रावत ने कहा कि उन्हें संवैधानिक संकट की वजह से इस्तीफा देना पड़ा। दरअसल, संविधान के मुताबिक, विधानसभा चुनाव की तारीख तय होने के एक साल पहले तक कोई उप चुनाव नहीं करवाए जा सकते। तो क्या वाकई तीरथ को बचाने का कोई रास्ता नहीं था? सुभाष कश्यप कहते हैं, 'बिल्कुल था, 10 सितंबर को तीरथ के छह महीने पूरे होने थे। उन्हें यह कार्यकाल पूरा करने देते। संविधान भले ही इस अवधि में उपचुनाव करवाने की अनुमति न देता हो, लेकिन विधानसभा चुनाव तय तारीख से छह महीने पहले कभी भी करवाए जा सकते हैं। लिहाजा सितंबर में केंद्र चाहता तो उत्तराखंड के चुनाव हो सकते थे।'
कश्यप के जवाब से साफ है कि केंद्र को तीरथ की जगह नया चेहरा विधानसभा चुनाव के लिए चाहिए था। पिछले साढ़े तीन महीनों के रिकॉर्ड को देखें, तो तीरथ एक गंभीर नेता की छवि नहीं गढ़ पाए। साथ ही धार्मिक समुदाय को भी संतुष्ट नहीं कर पाए। लिहाजा तीरथ को बचाने में केंद्र की कोई रुचि नहीं थी, बल्कि फरवरी में होने वाले चुनाव में एक ऐसे मुख्यमंत्री पद के दावेदार का चेहरा प्रोजेक्ट करने में थी, जो राज्य में भाजपा को चुनाव जिता सके।