रायपुर :  मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में महिला सशक्तिकरण को गति देते हुए ग्रामीण आजीविका मिशन ‘‘बिहान‘‘ के अंतर्गत महिलाओं को स्व-सहायता समूहों के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है। इसी दिशा में जशपुर जिले के काँसाबेल विकासखंड के आदिवासी बहुल कोटानपानी ग्राम पंचायत की महिलाओं ने छिंद और कांसा घास से बनी टोकरी को पहचान दिलाकर एक अनोखी सफलता की कहानी रच दी है।

कोटानपानी की महिलाएं अब पारंपरिक ज्ञान और हस्तशिल्प को आजीविका का आधार बनाकर अच्छी आय अर्जित कर रही हैं। लगभग 100 महिलाएं छिंद और कांसा से टिकाऊ, सुंदर और आकर्षक टोकरियां बना रही हैं, जिनकी मांग न केवल जशपुर जिले में बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों से भी बनी हुई है। छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प बोर्ड और बिहान मिशन के सहयोग से इस पारंपरिक उत्पाद को राष्ट्रीय पहचान मिली है, और महिलाएं लखपति दीदी की श्रेणी में शामिल हो चुकी हैं।

30 वर्षों पुरानी परंपरा को मिली नई दिशा

यह कला कोई नई नहीं, बल्कि लगभग 30 वर्ष पुरानी है। इसकी नींव रखी थी कोटानपानी की मन्मति नामक किशोरी ने, जिन्होंने 25 वर्ष पूर्व अपनी ननिहाल पगुराबहार (फरसाबहार विकासखंड) में यह कला सीखी और वापस अपने गांव में टोकरियों का निर्माण शुरू किया। शुरुआत में व्यक्तिगत उपयोग तक सीमित यह कला धीरे-धीरे अन्य महिलाओं तक पहुंची और स्थानीय बाजारों में इसकी बिक्री शुरू हुई। 2017 में राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत स्व-सहायता समूहों के गठन के बाद इस पारंपरिक हुनर को संस्थागत रूप मिला।

शुरुआत में हरियाली, ज्ञान गंगा और गीता नामक तीन समूह इस कार्य से जुड़े। फिर 2019 में छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प बोर्ड के आगमन से महिलाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण मिला। समूह की महिलाओं ने बिहान मेलों में भाग लेकर अपने उत्पादों की प्रदर्शनी लगाई, जिससे इस उत्पाद को पहचान मिली। जशप्योर ब्रांड के तहत बिक्री होने से देशभर से मांग आने लगी और महिलाओं की आय में जबरदस्त वृद्धि हुई।

प्राकृतिक और सांस्कृतिक पहचान वाला उत्पाद

छिंद (खजूर के पेड़ की सूखी पत्तियां) और कांसा (एक प्रकार की घास) से बनी यह टोकरी न केवल पर्यावरण अनुकूल है, बल्कि जशपुर के आदिवासी समाज में इसका सांस्कृतिक महत्व भी है। विवाह, देवपूजन और छठ पूजा जैसे अवसरों पर इसका उपयोग किया जाता है। छिंद की पत्तियां सालभर उपलब्ध रहती हैं जबकि कांसा घास विशेष रूप से सावन-भादों में एकत्र कर सुरक्षित रखी जाती है। टोकरी निर्माण में छिंद को कांसा पर लपेटकर मजबूती और आकर्षक आकार दिया जाता है। ये टोकरियां पूजा सामग्री, फल अथवा उपहार स्वरूप उपयोग की जाती हैं।

आजीविका का सशक्त माध्यम बनी टोकरी

आज कोटानपानी की महिलाएं न केवल कच्चे माल का संग्रहण स्वयं करती हैं बल्कि प्रति किलोग्राम 150 रुपये की दर से कच्चा माल भी बेचती हैं। जिले के 15 से अधिक समूह इस कार्य से जुड़ चुके हैं, जिससे 100 से अधिक महिलाओं को सतत आजीविका मिली है। सरकारी सहयोग और महिलाओं के सामूहिक प्रयास से यह परंपरा अब पहचान बन चुकी है।